हे सखी !
वो यशोदा का लाल,
चपल, चंचल, चतुर बाल कहाँ खो गया?
आज वो काँवरी पर टंगी मटकी से
मक्खन चुराने नही आया,
न खुद खाया, न ग्वाल बालों को खिलाया,
क्या अब वो बैरागी हो गया है?
या उसे गोपियों से मोह नहीं रहा?
या कि ब्रज की गलियों से छोह नहीं रहा?
या उसे गैया मैया नहीं भाँती?
या कि हम ही उसे कुछ ज्यादा सताती?
वह क्यूँ नहीं दिखता है,
किस ठौर टिकता है
क्या वह हमसे रुष्ट हैं?
या कि यशोदा के छाछ से ही तुष्ट है ?
उसे ब्रज की गलीयन में ढूंढो नाम लेकर बुलाओ,
मिले तो पकड़कर पास लाओ
मिश्री माखन खिलाओ कहो
कि अब हमें ज्यादा मत सताए
एक बार ही सही
अपनी मुरली बजाए सखी!
उसकी मुरली की धुन सुन लूँ
तो ब्रज में जन्मना धन्य हो जाए।
धन्य हो जाए।।
रुदल सिंह